कौन हैं कुम्भी बैस
सभी देवी-देवताओं से पहले क्यों होती है कुम्भ और अग्नि की पूजा
कुम्भ और अग्नि
हिंदू धर्म में ऐसे बहुत से देवी-देवता हैं जिनकी लोग पूजा-अर्चना करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव को त्रिदेवों के रूप में जाना जाता है। ब्रह्मा जी को संसार का रचियता माना गया है, तो भगवान विष्णु को पालनहार और पशुपतिनाथ शिव जी को संहारक। इस पृथ्वी पर भगवान विष्णु और शिव के हजारों मन्दिर और मन्दिरों के अवशेष देखने को मिलते हैं, लेकिन ब्रह्मा जी के मन्दिर पूरे संसार में केवल ३ ही हैं। उनमें से भी दक्षिणी भारत और थाईलैण्ड में स्थित ब्रह्मा के मन्दिर आदि ब्रह्मा का मन्दिर नहीं है बल्कि ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ किये गये प्रह्लाद नन्दन कुम्भ के मन्दिर हैं। विदित हो कि हिरण्यकशिपु नन्दन प्रह्लाद के तीन पुत्रों वीरोचन, कुम्भ और निकुम्भ में से दैत्य राज प्रह्लाद के उत्तराधिकारी वीरोचन को दैत्यों का अधिपति बनाया गया था, जबकि उनके छोटे भाई कुम्भ को महामंत्री और निकुम्भ को सेनापति का पद दिया गया था। दिति नन्दन वज्राङ्ग जब तप कर के वापस लौटे तब उनकी पत्नी वाराङ्गी ने इन्द्र के द्वारा के द्वारा प्रताड़ित करने की शिकायत करते हुए अपनी सुरक्षा के लिए पुत्र रत्न की माँग की थी। जिसके कारण उनके गर्भ से उत्पन्न ताड़क को जब अपनी माता और मातामह (दादी) श्री बड़ीदेवी जी को भी इन्द्र के द्वारा दिये गये दुखों के बारे में ज्ञात हुआ तब इन्द्र का दमन करने का संकल्प लेकर शिव जी का आशिर्वाद पाने के लिए पारिजात पर्वत पर जाकर कठोर तपस्या में लीन हो गये थे। तत्पश्चात अपनी तपस्या से शिवजी को प्रसन्न कर के करोड़ों वर्षों तक तीनों लोकों पर राज करने का वरदान पाने के बाद इन्द्र को परास्त कर के तीनों लोकों पर धर्म पूर्वक राज करने लगे थे।
कहाँ पर थी तारकासुर की राजधानी
वर्तमान में भारतीय राज्य उड़ीसा में जिस स्थान पर महानदी समुद्र में मिलती है, उसी संगम स्थल पर वाराङ्गी नन्दन तारकासुर अपनी राजधानी बना कर रहने लगे। वे अपने सहयोगियों को उनके सामर्थ्य के अनुसार जिस समय पद और अधिकार दे रहे थे, उसी समय प्रह्लाद नन्दन महात्मा कुम्भ को ब्रह्मा के पद पर प्रतिष्ठित किये थे। ब्रह्मा जी के पद पर प्रतिष्ठित कुम्भ की नीतियों के कारण तारक ने बन्दीगृह से सभी देवताओं को मुक्त कर दिया था। उनके राज्य में उनकी माता को अपमानित करने वाले इन्द्र और उसे उकसाने वाले देवों के अतिरिक्त कोई अन्य दुखी नहीं था। जबकि कुम्भ के द्वारा सबको समान रूप से आदर देने के कारण ये सब के प्रिय बने और देवों के लिए भी पूजनीय बने। प्रजापति कुम्भ के पूर्वज़ विराज भगवान के नाम से विख्यात ब्रह्मा जी स्वार्थ के लिए छल, और झूठ का सहारा लेने के कारण एक बार भगवान शिव के द्वारा और दूसरी बार अपनी अर्धांगनी सावित्री के द्वारा भी शापित होने के कारण भी प्रजापति कुम्भ की तरह नहीं पू़जे जाते हैं। इनकी विस्तृत कथा शिव पुराण और हरिवंश पुराण आदि ग्रन्थों में पढ़ सकते हैं।
कई लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर जिसने इस संसार की रचना की उनका मन्दिर सिर्फ़ पुष्कर में ही क्यों है? शिव, विष्णु, अग्निदेव, वरूण, इन्द्र, मित्र और पवन आदि देवों की तरह इनकी पूजा क्यों नहीं होती है? अगर आप लोग भी इसके बारे में अञ्जान हैं तो हम आपको इसके पीछे की पौराणिक कथा के बारे में बताते हैं।
पुराणों के अनुसार एक बार ब्रह्मा जी ने जगत कल्याण के लिए यज्ञ का विचार किया और यज्ञ की जगह का चुनाव करने के लिए उन्होंने आकाश से ही अपने एक कमल को पृथ्वी लोक में भेजा और जिस स्थान पर वह कमल गिरा, उसी जगह को यज्ञ के लिए उचित जगह समझ कर यज्ञशाला बनवाने लगे। किवदिंतियों के अनुसार जिस जगह पर ब्रह्मकमल गिरा था, उसी जगह पर ब्रह्मा जी का मंदिर बना दिया गया और वह स्थान आज भी राजस्थान के पुष्कर शहर में स्थित है। कहा जाता है कि जहाँ पर वह पुष्प गिरा था वहाँ एक तालाब बन गया था। उस तालाब के किनारे यज्ञ करने के लिए ब्रह्मा जी पुष्कर पहुंच गए, लेकिन उनकी पत्नी सावित्री नहीं पहुंचीं। यज्ञ स्थल पर सभी देवी-देवता पहुंच चुके थे, लेकिन देवी सावित्री का कुछ पता नहीं था। उनका इन्तजार करते-करते जब लोगों ने देखा कि यज्ञ अनुष्ठान के लिए निर्धारित शुभ मुहूर्त का समय बीतता जा रहा है तब कोई उपाय न देखकर ब्रह्मा जी ने देवी नन्दिनी गाय के मुख से उत्पन्न गायत्री को प्रकट किये और उनसे विवाह कर यज्ञ अनुष्ठान शुरू कर दिये।
यज्ञ आरम्भ होने के कुछ समय बाद देवी सावित्री यज्ञ स्थल पर पहुंचीं तो वहां ब्रह्मा जी के बगल में किसी अन्य स्त्री को बैठे देख कर क्रोधित हो गईं। गुस्से में उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दे दिया और कहा कि जाओ इस पृथ्वी लोक में तुम्हारी कहीं पूजा नहीं होगी। हालांकि बाद में जब उनका गुस्सा शान्त हुआ और देवताओं ने उनसे श्राप वापस लेने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि मैं अपने श्राप वापस तो नहीं ले सकती मगर धरती पर सिर्फ़ इस पुष्कर में ही ब्रह्मा जी की पूजा होगी। इसके अलावा जो कोई भी आपका दूसरा मंदिर बनाएगा, उसका विनाश हो जाएगा। तब से ब्रह्मा जी का मन्दिर कोई नहीं बनाता है। जबकि इस घटना के बाद वाराङ्गी नन्दन ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर प्रतिष्ठित किये गये प्रजापति कुम्भ की पूजा किये बगैर किसी भी देवी-देवताओं की पूजा नहीं की जाती है।
क्यों कुम्भी बैस कहलाते हैं कौशिक गोत्रीय लोग
ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ प्रजापति कुम्भ ने सरस्वती देवी के अंश से उत्पन्न अपनी तीन पुत्रियों स्वाहा, स्वधा और वषट् (विशाखा) का विवाह कौशिक विश्वामित्र नन्दन भगवान अग्निदेव के साथ करने के बाद अग्निदेव को ही यज्ञ भाग का मुख्य अधिकारी बना दिया था। नर्म पुर वासिनी नागकन्या देवी चक्षुस्मति के गर्भ से उत्पन्न कौशिक नन्दन अग्निदेव की पत्नियों में से स्वाहा से उन्होंने स्वाहाकार अग्नि, स्वधा से स्वधाकार अग्नियों और वषट् से वषटाकार अग्नियों (अध्याय २२, श्लोक संख्या ३०-३३, श्री महाभारते खिलभागे) को उत्पन्न कर सम्पूर्ण जगत में होने वाले यज्ञों के लिए प्राप्त पोषक तत्वों से देवी-देवताओं का भी पोषण करने लगे और देव-दानव, सुर-असुर सब को एक ही वंश से उत्पन्न होने के कारण समान भाव से व्यवहार करते हुए तीनों लोकों पर राज करने लगे। बाद में रूद्र आदि देवों का जन्म भी इन्हीं अग्निदेव के वंश में कुम्भी माताओं के गर्भ से हुआ था। इसके कारण अग्निदेव के वंश में उत्पन्न रूद्रों के वंशज़ कुम्भी बैस और कुम्भराढ कहलाये। विदित हो कि लोक तंत्र की जननी कहलाने वाली भूमि पर स्थित बिहार की वर्तमान राजधानी पटना में आज भी कुम्हरार नामक ग्राम स्थित है। यहाँ पर कुम्भी बैस वंशीय राज परिवार में ही उत्पन्न सम्राट अशोक की राजधानी स्थित थी, जिसका भग्नावशेष आज भी स्थित है।
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सूर्यवंशी राजा सगर के वंशज़ भी खुद को क्यों कहते हैं कुम्भी बैस
कुम्भी बैस कहलाने वाले कौशिक गोत्रीय लोगों के बारे में एक और कथा प्रचलित है। इसके अनुसार खुद को कुम्भी बैस कहने वाले वैसे समुदाय के लोग भी हैं जो अपना गोत्र कौशिक तो बताते हैं, लेकिन खुद को चन्द्रवंश में उत्पन्न कौशिक विश्वामित्र भगवान की तरह चन्द्रवंशी कहने के बजाए सूर्यवंशी कहते हैं। जबकि कश्यप वंशीय जिस प्रजापति कुम्भ से सम्बन्धित होने के कारण लोग कुम्भी कहलाते हैं उनसे या चन्द्रवंश में उत्पन्न कौशिक विश्वामित्र भगवान में से कोई भी सूर्यवंशी नहीं हैं। इसके बावजूद किसके वंशज़ हैं वे लोग जो अपने वंश की पहचान सूर्य, चन्द्र और कश्यप वंशीय प्रजापति कुम्भ से सम्बन्धित कुम्भी बैस के रूप में देते हैं?
सुमेरु की पुत्री भगवती गङ्गा जो अपने पितृ लोक से ज्यादा मेरूगिरी पर स्थित प्रजापति कुम्भ के लोक में निवास करती थीं, इनका पृथ्वी लोक पर अवतरण की कथा सुनाते हुए कौशिक विश्वामित्र भगवान ने दशरथनन्दन श्रीराम चन्द्र जी को सूर्यवंशी राजा सगर-पुत्रों के कुम्भी बैस कहलाने का प्रसंग विस्तार से बताये थे। उन्होंने गङ्गा अवतरन की कथा इस प्रकार सुनाना आरम्भ किया- “पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। हिमवान सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा और छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवीक गुणों से सम्पन्न थी। वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर स्वछन्द होकर विचरण करने वाली थीं और निर्भय होकर मनमाने मार्गों का अनुसरण करते हुए सर्वत्र विचरण करती रहती थी। उनकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देव लोग विश्व कल्याण की कामना से उन्हें हिमालय से माँग कर अपने साथ स्वर्ग लोक में ले गये। जबकि पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा जो बड़ी तपस्विनी थी, उन्होंने कठोर तप करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया।”
कौशिक विश्वामित्र जी के इतना कहते ही दशरथ नन्दन राम ने पूछा, “हे भगवन्! जब गंगा को देव लोग अपने सुर लोक ले गये, तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?” इस पर ऋषि विश्वामित्र जी ने बताया, “महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष बीतने पर भी जब भगवती उमा किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं कर पाई। तब शिव पुत्र कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर का वध होने के बाद ही स्वर्ग लोक में देवों के पुनर्स्थापित होने की भविष्यवाणी जानने वाले देवेन्द्र ने काफी समय बीतने पर भी कार्य सिद्ध नहीं होते देख, तारकासुर के वध के लिए सुयोग्य वीर का शिव पुत्र के रूप में जन्म लेने की कामना लेकर देवगण ब्रम्हा जी से प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रेरणा से काम देव को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। जिसके कारण वर्षों बाद महादेव शिव जी के मन में भी सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। लेकिन उमा के साथ विहार करते हुए जब काफी समय व्यतीत होने पर भी देवताओं को अपना अभिष्ट कार्य सम्पन्न होता हुआ नहीं दिखाई पडा़, तो वे चिन्तातुर होकर इन्द्र ने कौशिक विश्वामित्र भगवान की भार्या चक्षुष्मति नन्दन अग्नि देव से कहा कि तुम चतुरता से शिव जी के पास जाकर देखो की वे क्या कर रहे हैं। इस पर भगवान अग्नि देव! कपोत का रूप धारण कर के जैसे ही शिवजी की गुफा में पहुंचे ब्रम्हा, विष्णु और सभी देव गण भी शिव जी की गुफा के सामने स्थित उस वटवृक्ष के पास पहुंच गए, जिसके नीचे शिव जी अक्सर विश्राम करते थे। लेकिन वहाँ अग्निदेव या शिव जी को न देख कर सदाशिव के भवन के द्वार पर गए और उन्हें उच्च स्वर में पुकारे। इस पर शिव जी के गणों ने बताया कि वे काफी समय से गिरिजा जी के पास हैं। तब देवों ने तारकासुर के वध के लिए महादेव शिव के अंश से सुयोग्य वीर के जन्म की कामना से ब्रह्मा जी के साथ विचार करने लगे कि संसार में ऐसी कौन नारी है जो अमित तेजस्वी सदाशिव के तेज को सम्भाल सकता है? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए अत्यंत आतुर होकर जब महादेव को फिर से पुकारा। तब भक्ति के अधीन रहने वाले शिव जी भगवती गिरजा से विमुख होकर भक्तों के सामने प्रकट हो गये तथा अपने भक्तों के द्वारा यह कहने पर कि आप हमारा अभीष्ट कार्य क्यों नहीं कर रहे? सदाशिव ने कहा कि मैं तुम्हारे ही कार्य में लगा था मगर तुम लोगों के इस तरह अधीर होने से हमारा वीर्य हमारी शैय्या के पास ही गिर गया है। तुम लोगों में से जिसमें क्षमता हो वह उसे धारण कर लो। सदाशिव के इस बात को सुनते ही उस वीर्य की रक्षा करने के लिए विष्णु जी का इशारा पाकर कपोत रूप धारी भगवान अग्नि देव उस वीर्य को अपनी चोंच में धारण कर अपने घर की ओर उड़ गए तथा वशिष्ठ ऋषि की पत्नी देवी अरून्धती के साथ रहने वाली ऋषि पत्नियों में शिव जी के वीर्य को धारण करने के लिए बाँट दिए। ताकि वे शिव पुत्र की माता होने का गौरव पा सकें। लेकिन वे उसके ताप को नहीं सह पायीं तब अग्नि देव ने उसे हिमवान नन्दिनी भगवती उमा की बड़ी बहन देवी गंगा के गर्भ में डाल दिया। समय आने पर भगवती गंगा व्याकुल होकर कुम्भ में चली गई और बड़े जोर से नाद करते हुए सरपत के ढेर पर एक बालक के रूप में कुमार कार्तिकेय को जन्म दिया। देवताओं के द्वारा विहार में बाधा पड़ने से जब उमा शिव पुत्र की माता बनने से वंचित हो गयी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि मुझे गर्भ से वंचित करने वालों! तुम्हीं गर्भ धारण करो और जब वीर्य को मुख में धारण कर ही लिए तो अब से भक्ष्य-अभक्ष्य सभी चीजें खाया करो। भगवती उमा से शापित होते ही गर्भ धारण कर के संसार में लज्जित होने लगे जिससे शिव कृपा से ही उन्हें मुक्ति मिली। इसी बीच सुरलोक में विचरण करती हुई भगवती गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करते हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। इस पर उमा ने गंगा को आश्वासन दिया कि मैं इसके लिये कोई उपाय करती हूँ।
पृथ्वी पर भगवती गङ्गा के अवतरण की यह कथा सुनाते हुए विश्वामित्र जी ने दशरथ नन्दन राम से कहा कि “वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके पिता का नाम बाहु और माता का नाम नन्दिनी था। शत्भिषा नक्षत्र और कुम्भ राशि में जन्में महाराजा सगर को कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति था, जो भगवान नेमिनाथ के नाम से विख्यात राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तप करने लगे। उनके तप से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी को साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की तथा राजा विश्वजीत और राजा रक्तमबोज़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।
दसवें महीने में रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। जबकि रानी सुमति के गर्भ से एक तूम्बीनुमा माँस पिण्ड निकला। जिससे जीरे के आकार के छोटे-छोटे साठ हजार भ्रूण निकले। उन सबका पालन-पोषण घी से भरे हुए साठ हजार कुम्भ में रखकर सावधानी पूर्वक किया गया। असमंजस के जन्म लेने के आठ महीनों के बाद कुम्भ में पल रहे सभी साठ हजार पुत्रों ने भी अपना शरीर पाकर जन्म लिया और असमंजस के साथ पलते हुए सभी राजकुमार युवा हो गये। अपेक्षाकृत महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों से आठ माह ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। यद्यपि वे अपने ज्येष्ठ पुत्र का परित्याग करने से दुःखी तो थे ही, मगर अपने साठ हजार पुत्रों की सहायता से उन्होंने शीघ्र ही अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया।
अश्वमेध यज्ञ की चर्चा सुनते ही राम ने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी से कहा, “गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इसे वृतान्त को सुनाइये।” राम के इस निवेदन से प्रसन्न होकर विश्वामित्र जी कहने लगे, ”राजा सगर ने हिमालय और विन्ध्याचल के बीच की हरी-भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने उस घोड़े को चुरा कर पृथ्वी के आग्नेय कोण में स्थित सागर तट पर समाधिस्थ कपिल भगवान की कुटिया में उस स्थान पर बाँध दिया जहाँ पर वे अपनी समाधि में लीन थे। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। अपहृत अश्व की तलाश करते हुए उन्होंने पृथ्वी को चारों दिशाओं में खोद डाला लेकिन घोड़ा नहीं मिला। इस क्रम में जो भी राज्य, नगर व ग्राम आये उन्हें अपहृत अश्व की तलाश करते हुए विजित भी करते गए। इस कार्य से असंख्य पृथ्वी वासी प्राणी मारे गये। खोदते-खोदते वे आकाश-पाताल सबको जीत लिए, मगर अश्व का कहीं पता नहीं चला। तब सगर नन्दन कुम्भी पुत्रों के नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की। इस पर ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा कि "ये राजकुमार क्रोध और मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा का दायित्व कपिल भगवान पर है। अतः इन्हें रोकने के लिए वे कुछ न कुछ अवश्य करेंगे।" पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब अश्वमेध यज्ञ के लिए छोड़ा गया घोड़ा और उसको चुराने वाले चोर के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। अपने पुत्रों से अश्व की तलाश करने के लिए किये गये अभियानों के बारे में विस्तार पूर्वक जानने के बाद महाराजा सगर ने अपने पुत्रों को सावधानी पूर्वक सभी वंचित स्थानों में जाकर एक बार फिर से तलाश करने का आदेश दिया। इस पर महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों में से चार पुत्र बर्हकेतु, सुकेतु, धर्मरथ और शूर सहित असमञ्जस नन्दन राजकुमार अंशुमन दरबार में ही रोक कर सभी शेष पुत्रों को तलाशी से वंचित पृथ्वी के आग्नेय कोण में स्थित सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में भेजा गया। उस क्षेत्र में स्थित कपिल भगवान के आश्रम में जिस स्थान पर कुम्भी भाईयों ने अपने अपहृत अश्व को बन्धा हुआ देखा वहाँ एक तपस्वी को समाधिस्थ देख इन्द्र देव की चाल से अनभिज्ञ होने के कारण समाधिस्थ कपिल भगवान को ही अश्व की चोरी करने वाला समझ कर उन्हें दुर्वचन कहते हुए मारने के लिए दौड़े। इस पर अश्व की चोरी की घटना से अनभिज्ञ कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई और उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के सभी निर्दोष पुत्रों को अपने नेत्र से निकले दिव्य अग्नि की ज्वाला से जला कर भस्म कर दिये। कपिल भगवान की तपोभूमि के पास स्थित जिस जगह पर महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों की अकाल मृत्यु हुई थी, वह जगह कुम्भकोणम के नाम से विख्यात है।
कपिल आश्रम में हुई इस दुखद घटना की सूचना पाकर महाराजा सगर उस दिव्याग्नि में भष्म होने से बचे चार कुम्भी पुत्रों और असमञ्जस नन्दन अंशुमन को साथ लेकर कपिल भगवान के आश्रम में गये और अपने पुत्रों के द्वारा अनजाने में हुई भूल के लिए क्षमा याचना कर के उन्हें प्रसन्न किये। तत्पश्चात उनके आश्रम से अपने यज्ञ पशु को मुक्त करवा कर अपने यज्ञ को पूरा किये। मगर अकाल मृत्यु के कारण महाराजा सगर के पुत्रों की आत्मा को शान्ति नहीं मिली। वे अपनी मुक्ति के लिए हाहाकार मचाते हुए भटकती रही। उन आत्माओं की शान्ति देने के लिए देवी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए अभियान चलाया गया और उनके जल प्रवाह के स्पर्श से उन्हें मुक्ति दिलाया जा सका।
इस तरह महाराजा सगर के साठ हजार कुम्भी पुत्रों में से चार पुत्र नष्ट होने से बच गए थे। विष्णु भक्त होने के कारण सूर्यवंश में उत्पन्न उन कुम्भी पुत्रों के वंशज भी कुम्भी बैस कहलाये।
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यूं तो महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों के वंशज़ सूर्य वंशी हैं, लेकिन ये अपना गोत्र कौशिक बतलाते हैं जो चन्द्र वंश में उत्पन्न कौशिक गाधि के पुत्र थे। मगर इक्ष्वाकु वंशी सगर नन्दन शुर और सत्यव्रत नन्दन हरिश्चंद्र सहित शिवपुत्र कार्तिकेय और प्रह्लाद नन्दन कुम्भ का गोत्र भी कौशिक ही क्यों कहलाता है? क्या कौशिक गोत्रीय कुम्भी बैस राजा सगर के ही वंशज हैं या ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ किये गये महात्मा कुम्भ के वंशज़ हैं? मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के वंश में उत्पन्न कुम्भी बैस वंशीय हमारे इस वंश की कुल देवी बन्दी मइया कहलाती हैं। मगर ये कौन हैं? बन्दी मइया किसे कहते हैं? कुम्भी बैस वंशीय लोग बर्हगायां, बरगाही, वारङ्गियन, कछवाहा और ब्राह्मणशाही क्षत्रिय के नाम से भी मशहूर हैं। मगर इसका क्या कारण है? वंश, गोत्र और प्रवर आदि का क्या अर्थ है? ऐसे कई सवालों का जवाब जानने के लिए हमारे संगठन "कौशिक कंसल्टेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो" के द्वारा प्रेषित सन्देशों को देखते रहें तथा पसन्द आने पर हमारे पेज़ को लाइक कर अधिकाधिक लोगों में शेयर करें।
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