कौशिक रचित भृगु साठिका
कौशिक रचित
। महर्षि भृगु साठिका ।।
जिनके सुमिरन से मिटै, सकल कलुष अज्ञान।
सो गणेश शारद सहित, करहु मोर कल्यान ।।
वन्दौं सबके चरण राज, परम्परा गुरुदेव
महामना, सर्वेश्वरा, महाकाल मुनिदेव। ।
बलिश्वर पद वन्दकर, मुनि श्रीराम उर धारि।
वरनौ ऋषि भृगुनाथ यश, करतल गत फल चारि। ।
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जय भृगुनाथ योग बल आगर।
सकल सिद्धिदायक सुख सागर ।। 1
विश्व सुमंगल नर तनुधारी।
शुचि गंग तट विपिन विहारी।।2 ।।
भृगुक्षेत्र सुरसरि के तीरा।
बलिया जनपद अति गम्भीरा। .3 ..
सिद्ध तपोधन दर्दरामी।
मन-वच-क्रम गुरु पद अनुगामी। .4।
तेहि समीप भृगवश्रम धामा।
भृगुनाथ ने पूरन कामा। । 5 ..
स्वर्ग धाम निकट अति भाई।
एक नगरिका सुषा सुहाई। । 6 ..
ऋषि मरीचि से उद्गम भाई।
यही मह कश्यप वंश सुहाई।।7 ।।
ता कुल भयउ प्रचेता नेमी।
होय विनम्र संत सुर सेवी।।8 ।।
तिनकी भार्या वीरणी रानी।
गाथा वेद-प्रसंग बखानी। .9।
तिनके सदन दुइ सुत होइ।
जनम-जनम के अघ सब खोया। .10।
भृगु अंगिरा है दोउ नामा।
तेज प्रताप अलौकिक धामा ।। 1 1..
तरुण अवस्था इंटासति भयौ।
गुरु सेवा में मन दोउ ल्यौ। .12
करि हरि ध्यान प्रेम रस पागो।
आत्मज्ञान होवन हैगेओ।।13 ।।
परम वीतराग ब्रह्मचारी।
मातु समान लखै न नारी।।14 ।।
कंचन को मिट्टी करि जाना।
समर आप ज्ञान निधाना।।15 ।।
दैत्यराज हिरण्य की कन्या।
कोमल गत नाम दिव्या थी।।16 ।।
भृगु-दिव्य की हुई सगाई।
ब्रह्मा-वीरणी मन हरसाई। 171117 17
दानव राज पुलोमा भी आये।
निजी सुता पौलमी को लाई।।18 ।।
सिरजनहार कृपा अब कीजै।
भृगु-पौलमी ब्यो कर लीजै।।19 ।।
ब्रह्मलोक में खुशियां छाई।
तीनों लोक बजी शहनाई।।20 ।।
दिव्या-भृगु के सुत दो होइ।
त्वष्टा, शुक्र नाम कर जोई।।21 ।।
भृगु-पौलमी कर दू प्रमा।
च्यवन, ऋचीक जिसका नाम है।।22 ।।
काल कर समय
देव-दैत्य म्ह भई लड़ाई। .23
ब्रह्मानुज विष्णु कर कामा।
देव गणों का करें कल्याना ।। २४४ ।।
भृगु भार्या दिव्या गई मारी।
चारु दिशा फैली अँधियारी।।25 ।।
सुषा छोड़ि मंदराचल आये।
ऋषिन सभय से यज्ञ कराये।।२६ ।।
ऋषियन मिन्हता यह छाई।
कवन बड़ा देवन मन भाई ।। 2 ।।
ऋषिन-मुनिन मन जागी इच्छा।
कहे भृगु के सुधारों की परीक्षा।।२ भा ।।
चला पितृलोक ब्रह्मा नन्दन।
जहाँ विराज रहे चतुरानन।।29 ।।
ऋषि-मुनि कारन देव सुखारी।
तिनके कोउ नाही पुछारी।।30 ।।
शाप दियो पितु को भृगुनाथा।
ऋषि-मुनिजन का ऊँचा माथा।।31 ।।
ब्रह्म लोक महिमा घटि जाही।
ब्रह्मा पूज्य होही अब नाही।।32 ।।
गया शिवलोक भृगु आचर।
जहाँ विराजत है त्रिपुरारी।।33 ।।
रुद्रांशों ने भलाई दी।
भृगु मुनि तबहि रिस आई ।। 34 ..
शिव को घोर तामसी माना जाता है।
जिसे सबके कल्याना हो जाते हैं ।35 ।।
कुटे भयउ कैलाश विहारी।
रुद्रगणों को तुरत निकारी।।36 ।।
कर जोरे विनती सब कीन्हा।
मन मुसुकाई आपु चल दीन्हा।।37 ।।
शिवलोक उत्तर दोई भाई।
विष्णु लोक अति दिव्य सुहाई।।38 ।।
क्षीर सागर में करत विहारा।
लक्ष्मी संग जग पालनहारा।।39 ।।
लीला देखि मुनि गई रिसियन।
होत चले रे भाई।।40 ।।
विष्णु वक्ष पर कीन्ह प्रहारा।
तीनहुँ लोक मचे हमरा।।41 ।।
विष्णु ने तब लीन्हा को पोस्ट किया।
कहा नाथ आप भल कीन्हा।।42 ।।
आत्म स्वरूपा गण।
माहिम विष्णु को माना।।४३३ ।।
दण्डोर्य मरीचि मुनि आये।
भृगु मुनि को वह दण्ड सुनाये।।44 ।।
आप उसियो त्रिदेव अपमे
नव कल्यान काल नियराना।।45 ।।
पाप विमोचन एक अधारा।
विमुक्त भूमि गंगा की धारा।।४६ ।।
हाथ जोरि विनती मुनि कीन्हा।
विमुक्त भूमि का देहू चीन्हा।।47 ।।
मुदित मरिचि बोले मुसकाई।
तीरथ भ्रममन करौं तुम सांई।।48 ।।
जहाँ गिरे मृगछल तुम्हारी।
पाप भूमि से पाप की प्रशंसा।।49 ।।
भ्रममनत भृगुमुनि बलिया आये।
सुरसरि तट पर धूनी रमाय।।50 ।।
कटि से भू पर गिरी मृगचला।
भुज अगन बाल घुँघराला ।51 ।।
करि हरि ध्यान प्रेम रस पागे।
विष्णु नाम जप करणेजे।।५२ ।।
सतना के वो दिन नयारे थे।
दर्दर चेला भृगु के प्यारे।।53 ।।
दर्दर से सरु मँगवाये।
यहाँ भृगुमुनि यज्ञ कराये।।54
गंगा-सरु संगम अविनाशी।
संगम कार्तिक पूरनमासी।।55 ।।
जुटे करोड़ो देव देह धारी।
अचरज करन लगे नर-नारी।।56 ।।
जय-जय भृगुमुनि दीन दयाला।
दया सुधा बरसेहुँ सब काला।।57 ।।
सब परिस्थिति प्रति माहि बिलाव।
जे धरि ध्यान हृदय गुन गावैं।।58 ।।
सब संकल्प सिद्ध हो ताके।
जो जन चरण-शरण में आके।।59 ।।
परम दयामय हृदय तुहारो।
शरणागत को शीघ्र उबारो।।60 ।।
आरत भक्तन के हित भाई।
कौशिकेय यह चरित रचना ।।
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भृगु संहिता रची करि, भक्तन को सुख दीन्ह।
दर्दर कोशिष दे, तुम गमन तब कीन्ह ।।
पावन संगम तट मह, कीन्ह देह का त्याग।
माई बन्दी के भक्तन को, देहु अमित वैराग ।।
दियो समाधि अवशेष की, भृग्वाश्रम निजी धाम।
कर दर्शन भृगु धाम के, सिद्व होय सब काम।
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