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अफ़्रीका में कुम्भी कबीलों के पारम्परिक धर्म

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नाइजीरिया में कुम्बी समुदाय का व्यवसायिक प्रतिष्ठान सन्दर्भित लेख के स्त्रोत : विकिपीडिया  सम्पादित, प्रसेनजित सिंह कौशिक अफ्रीकी लोगों की पारम्परिक मान्यताएं और प्रथाएं भारत की तरह ही विविधताओं वाले हैं। अफ़्रीका मानव सभ्यता की उत्पत्ति स्थल होने के कारण सबसे ज्यादा विविध मान्यताओं और परम्पराओं वाले लोगों की धरती है। जिनमें विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग शामिल हैं। [1] [2] आम तौर पर ये परम्पराएं शास्त्रों के बजाय मौखिक हैं जो लोक कथाओं, गीतों, त्योहारों और रीति-रिवाजों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संरक्षित और विकसित होते रहते हैं। [3] [4]  कभी-कभी उच्च और निम्न देवताओं की पहचान में हमारा विश्वास भी शामिल होता है। एक सर्वोच्च निर्माता या शक्ति, आत्माओं में विश्वास, मृतकों की वन्दना, जादू-टोने और पारम्परिक अफ़्रीकी चिकित्सा पद्धति के उपयोग सहित अधिकांश धर्मों को एनिमिस्टिक के रूप में वर्णित किया जा सकता है।[5] [6] विभिन्न सांस्कृतिक समारोहों के साथ बहुदेववादी और सर्वेश्वरवादी पहलू भी [7] [1] मानवता की भूमिका को आम तौर पर अलौकिक के साथ प्रकृति के सामंजस्य के रूप में देखा जात

Komi Republic of the Kumbhi Kaushik community

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कुम्भी बैस बनाम स्लाविक रोडनोवर्स स्लाविक रोडनोवर्स! इजिप्ट और रोमन साम्राज्य से विस्थापित हुए कोमी मूल के वे लोग हैं जो न केवल आज भी अपने पुरखों की परम्परागत संस्कृति को बचाये हुए हैं बल्कि आधुनिकता के नाम पर अपनी मूल संस्कृति को छोड़ते जा रहे कुम्भी समाज के लोगों को अपनी संस्कृति से जोड़े रखने के लिए हर सम्भव प्रयास करने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस समुदाय के कारण ही रूस के कोमी राज्य में रहने वाले कुम्भी जाति के लोग अपने घरों व मन्दिरों में प्रवेश करने के लिए सबसे पहले अपने बायें पैर को आगे बढ़ाते हैं। इसी तरह अपने विजय की आकांक्षा या शुभ परिणाम की कामना करते हुए सभी तरह के अभियान पर प्रस्थान करने के लिए सबसे पहले अपने बायें कदम को आगे बढ़ाना ही शुभ समझते हैं। भारतीय कुम्भी समुदाय की तरह रूस के कोमी नामक राज्य में रहने वाले कोमी समुदाय के लोग भी ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करने के लिए मुण्डन करवाते हैं, मगर माथे पर धारण करने वाले केशशिखा को यूक्रेन, स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड में रहने वाले कौशिक गोत्रीय कुम्भी समाज की तरह ही बायीं ओर झुकाये रखते हैं या बायीं ओर लपेटते हुए अपनी केशशिखा बाँध क

भारतवर्ष के नामकरण का क्या है असली सच

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भारतवर्ष का नामकरण दुष्यंत के बेटे भरत के नाम पर नहीं हुआ था इथियोपियाई माउण्टेन मेरू का नामकरण मेरू नामक जिस पौराणिक देवी के नाम पर हुआ था, उसी देवी के पुत्र भरत के नाम पर नामकरण हुआ था भारतवर्ष का। Mount Meru in Tanzania Mount Meru in Tanzania आदि मनु के नाम से विख्यात स्वयंभू मनु के पौत्र प्रियवर्त के परपौत्र ने भारतवर्ष को बसाया था। वायुपुराण के अनुसार स्वयंभू मनु के पुत्रों प्रियवर्त और उत्तानपाद में से ज्येष्ठ पुत्र प्रियवर्त जो जम्बूदीप के राजा थे, उन्हें जब कोई पुत्र नहीं हुआ तब वे अग्निन्ध्र नामक अपने दौहित्र (पुत्री के पुत्र) को अपना दत्तक पुत्र बना कर पालन-पोषण किये थे। प्रजावत्सल अग्निन्ध्र के पुत्र नाभि का विवाह मेरू नामक जिस देवी के साथ हुआ वे भी जम्बूदीप नामक उसी लोक की रहने वाली थी जहां की प्राचीन सभ्यता के लोगों को आज भी पुरातत्वविद God of Kush कह कर पुकारते हैं। हालांकि जम्बूदीप का एक छोटा सा भाग ही कुश नामक राजा के नाम पर कुश देश के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। लेकिन इस देश के अस्तित्व में आने से हजारों साल पहले नाभि की पत्नी मेरू के गर्भ से जिस ओजस्वी पुत्र का जन्म हुआ

आर्यों की मूल भूमि है अजर्बैज़ान

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सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु की जन्म भूमि है अजर्बैज़ान का बाकु  बाकू के मन्दिर में मिली नटराज की प्रतिमा बाकू के आतिश टेम्पल में निर्मित अग्निकुण्ड में स्थित हजारों वर्ष प्राचीन अखण्ड अग्नि Baku, Azerbaijan https://maps.app.goo.gl/31Vc4i72H8ePC4UG8 सूर्य वंशी राजा इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न एक दुराचारी राजा! अपने छोटे भाई हर्यश्व और उनकी पत्नी मधुमति को अपने राज्य (बाकु) से निकाल दिया था। तब वे वनों में भटकते हुए पूरब के देश सौराष्ट्र की ओर चले गए थे। वहाँ के इन्द्र! दानव राज मधु थे। जब वन में भटकते हुए बहुत समय बीत गया तब उनकी पत्नी ने हर्यश्व को समझाते हुए कहा था - "इस तरह श्रीहीन होकर वन-वन भटकने के बजाए मेरे माता-पिता के पास चल कर मदद माँगना चाहिए। इस तरह कब तक अपनी सच्चाई छुपाते रहेंगे? लेकिन हर्यश्व ने अपने कुल को बदनामी से बचाने के साथ-साथ ससुराल वालों की दया पर जीने से भी इंकार करते हुए अपनी पत्नी को अपने पितृलोक में जाने की अनुमति दे दिये थे। लेकिन दानवेन्द्र मधु की बेटी ने यह कहते हुए अपने पिता के पास जाने से इंकार कर दिया था कि स्त्री अपने जीवन में एक ही पुरुष की कामना

ताजमहल और अम्बेर रियासत का असली सच

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लेखक, शोधकर्ता एवम उदासी सन्त स्वामी सत्यानन्द उर्फ़ प्रसेनजित सिंह कौशिक 24 नवंबर 1675 की तारीख गवाह बनी थी कुम्भी बैस वंशीय एक सिख सरदार के सरदार बने रहने की।  दोपहर का समय और जगह चाँदनी चौक दिल्ली में लाल किले के सामने जब मुगलिया सल्तनत के सबसे नीच शासक की क्रूरता देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था, तब भी उस सनकी शासक के डर से लोग चुपचाप फैसले का इंतजार कर रहे थे। वह शासक मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा की छल पूर्वक हत्या करवाने वाला वह कायर था, जिसने सल्तनत के लिए अपने भाईयों की हत्या कर के अपने पिता और पुत्र तक को कारागार में डाल दिया था। वह नराधम इस्लाम के विस्तार के नाम पर अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए बाधक बन रहे सिखों के गुरू श्री तेग बहादुर सिंह जी के खिलाफ़ जो फैसला सुनाने वाला था, उसे जानने के लिए लोगों का जमघट काज़ी के उस मंच की ओर लगा हुआ था, जहाँ तेग बहादुर जी का फैसला होने वाला था। सबकी साँसे उस परिणाम को जानने के लिए अटकी हुई थी जिसके मुताबिक अगर गुरु तेग बहादुर जी इस्लाम कबूल कर लेते तब बिना किसी खून-खराबे के सभी सिखों को मुस्लिम बनना पड़ता।  औरंगजेब के लिए भी

कौशिक रचित भृगु साठिका

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कौशिक रचित ।  महर्षि भृगु साठिका ।। ✍️ संकलन और सम्पादन, प्रसेनजित सिंह जिनके सुमिरन से मिटै, सकल कलुष अज्ञान। सो गणेश शारद सहित, करहु मोर कल्यान ।। वन्दौं सबके चरण राज, परम्परा गुरुदेव महामना, सर्वेश्वरा, महाकाल मुनिदेव। । बलिश्वर पद वन्दकर, मुनि श्रीराम उर धारि। वरनौ ऋषि भृगुनाथ यश, करतल गत फल चारि। । .🏺🌺🌹🌺🏺 जय भृगुनाथ योग बल आगर। सकल सिद्धिदायक सुख सागर ।। 1 विश्व सुमंगल नर तनुधारी। शुचि गंग तट विपिन विहारी।।2 ।। भृगुक्षेत्र सुरसरि के तीरा। बलिया जनपद अति गम्भीरा। .3 .. सिद्ध तपोधन दर्दरामी। मन-वच-क्रम गुरु पद अनुगामी। .4। तेहि समीप भृगवश्रम धामा। भृगुनाथ ने पूरन कामा। । 5 .. स्वर्ग धाम निकट अति भाई। एक नगरिका सुषा सुहाई। । 6 .. ऋषि मरीचि से उद्गम भाई। यही मह कश्यप वंश सुहाई।।7 ।। ता कुल भयउ प्रचेता नेमी। होय विनम्र संत सुर सेवी।।8 ।। तिनकी भार्या वीरणी रानी। गाथा वेद-प्रसंग बखानी। .9। तिनके सदन दुइ सुत होइ। जनम-जनम के अघ सब खोया। .10। भृगु अंगिरा है दोउ नामा। तेज प्रताप अलौकिक धामा ।। 1 1.. तरुण अवस्था इंटासति भयौ। गुरु सेवा में मन दोउ ल्यौ। .12 करि हरि ध्यान प्रेम रस पागो। आत