ब्रह्मर्षि भृगु और कौशिक के वंशज़
कौन हैं कुम्भी बारी, कम्मा बारी और बड़गायां परिवार के नाम से प्रसिद्ध कौशिक गोत्रीय समाज
बारी, बड़गायां, बड़गामा, बर्लिन, बर-एइली (बरैली), ब्राज़ील और बर्जिनिया जैसे नाम आपने भी सुना होगा। ये नाम विभिन्न देशों, राज्यों और नगरों के नाम भले ही हैं, लेकिन ये अपनी बहादुरी और सम्पन्नता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध कौशिक और कुम्भी (Cossacks and Comers) बैस कहलाने वाले सबसे प्राचीन राजवंश के वंशज़ों की जाति- "बारी जाति" के सूचक हैं। इसके कारण कौशिक गोत्रीय लोगों की एक जाति दक्षिणी भारत में कम्मा वारु के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। यही जाति इण्डोनेशिया के बली और जावा नामक द्वीपों सहित उत्तर भारतीय राज्योंं में कुम्भी कहलाती है। इसी इण्डोनेशियाई द्वीप के पश्चिमी तट पर रहने वाले चार कौशिक गोत्रीय ब्राह्मणों को बुलाकर सह्याद्रि के तटवर्ती क्षेत्रों में बसाया गया था। जिन्हें पड़ोसी राज्यों के द्वारा जब परेेशान किया जाने लगा तब चारों ब्राह्मणों ने यह निर्णय लिया कि उनके वंश में इसके बाद उत्पन अगला सन्तान पुत्र हो या पुत्री वह क्षत्रिय होगा। उसमें ब्राह्मणोचित संस्कारों के साथ क्षत्रिय संस्कार की भी शिक्षा दी जाएगी। जो हम लोगों का राजा बनेगा। निर्णय के अनुसार उन ब्राह्मणों के वंश में प्रथम उत्पन्न जो सन्तान राजा बना वह पेरुमल कहलाया। उस राजा के वंश में उत्पन्न चेर नामक राजा के नाम पर उनका राज्य भी चेर राजवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में इस वंश में उत्पन्न केरल नामक राजा के नाम पर चेर राज्य केरल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में इसी वंश में उत्पन्न चोल पेरुमल के नाम पर चोल नामक एक नया राज्य बसाया गया। चेर राज्य के राजवंश में ही उत्पन्न पाण्ड्य नामक युवक को जब पेरुमल बनाया गया तब उनकेे वंशज़ पाण्ड्य कहलाये। ये सभी एक ही वंश से उत्पन्न कौशिक गोत्रीय ब्राह्मणों के वंशज़ हैं। आपसी विवाद के कारण इनकी शक्ति जब क्षिण हो गई तब पड़ोसी शासकों के दरबार में मन्त्री और सरदारी का काम करने लगे। काकतीय साम्राज्य और विजयनगर साम्राज्य में भी यही करते रहेे। मगर मुगलकाल में जिन कौशिक गोत्रीय ब्राह्मणों को बिहार में जाकर शरण लेना पड़ा उनके वंशज़ आज भी कुम्भी बैस वंशीय बड़गायां परिवार के ही सदस्य कहलाते हैं। कुुम्भी कहलाने वाले इसी वंश के जो लोग महाराष्ट्र में जाकर बस गये वे बारी ब्राह्मण कहलाते हैं। जबकि इसी वंंश की एक शाखा कहीं पर कम्बोज़ तो कहीं पर कुमावत कहलाती है। खुद को कम्बोज़ कहने वाली इस जाति का मुख्य कार्य था धर्म रक्षार्थ यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठान करना, जन-जीवन हेतु जरूरी संसाधनों की व्यवस्था करना और संकट ग्रस्त लोगों की सहायता करने के लिए विश्व के सभी राज्यों से राजस्व की वसूली करना। अपने शौर्य के बदौलत युद्ध, विज्ञान, कला, साहित्य और व्यापार आदि सभी क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले कौशिक गोत्रीय लोगों के पूर्वज़ों के वंशज़ बारी बैस भी कहलाते हैं।
भारत में ही यह जाति कहीं पर बारी ब्राह्मण कहलाती है, तो कहीं पर बारी बैस तो कहीं पर सिर्फ़ "बारी" नामक एक जन जाति। जबकि इटली, माली, सोमालिया, रूस, मलेशिया और औस्ट्रेलिया आदि देशों में बारी नामक राज्यों के भी होने का पता चलता है। इन्हें संलग्न तस्वीरों में देख सकते हैं।
कौशिक गोत्रीय बारी ब्राह्मणों के द्वारा इटली के दक्षिण-पूर्वी भाग में बसाया गया राज्य "बारी" |
बारी ब्राह्मणों का बड़गामा नामक गाँव और विजय पोरस द्वारा स्थापित विजयन्तियम् नामक नगर के अवशेष के पास स्थित स्मारक बिजंटाइन सीटी वाल |
इस्ताम्बुल के कुमलुक में राजमार्ग के किनारे स्थित विजयन्तियम् साम्राज्य के ऐतिहासिक दीवारों के अवशेष |
तुर्की के इस्ताम्बुल में बॉस-पोरस" नामक एक ऐतिहासिक स्थान जो मारमरा सागर से होते हुए ....... को जल डमरूमध्य से जोड़ने वाला मुख्य बन्दरगाह है, जिसका नामकरण मद्र के राजा पोरस के नाम पर उनके पुत्र विजयपोरस (Vijay Porsche) ने रखा था। सिकन्दर और सेल्यूकस की मृत्यु के बाद रोमन साम्राज्य की बागडोर सिंहबाहु विजय पोरस ने अपने हाथ में ले लिया था। विदित हो कि सिकन्दर की तरह विजय पोरस भी कौशिक गोत्रीय बारी ब्राह्मण ही थे। उनके पहले दक्षिणी तूर्की के कुश्तुन्तुनियां (इस्ताम्बुल) में -४५४ ईसापूर्व आये यूनानी लेखक हेरोडोटस! जिनका संस्कृत नाम हरिदत्त था, वे भी कौशिक गोत्रीय बारी ब्राह्मण ही थे। कहते हैं कि हरिदत्त को उनके राज्य से ३२ वर्ष की आयु में निर्वासित कर दिया गया था। इसके कारण वे भटकते हुए पर्सियन साम्राज्य के सुषा नामक उस नगर में आकर रहने लगे थे जिसे वेदों में वर्णित महर्षि भृगु की जन्मस्थली कहा गया है। विदित हो कि बारी! वैदिक ब्रह्मर्षि भृगु भगवान के वंशज़ों को कहा जाता है तो बड़गायां! भी भृगुवंशियों से आबाद गाँव को कहा जाता है। कई जगह इन्हें अत्रिबारी (Atribari) भी कहा जाता है।
विजयन्तियम् साम्राज्य की बर्बादी का कारण प्लेग की महामारी और उस बिमारी के थमने के बाद मुस्लिम आक्रान्ताओं के हमलों को बताया जाता है जबकि असली कारण गृह युद्ध था। उस दौरान विजय पोरस के वंशज़ों के जिन कबिलों के लोग दक्षिण भारतीय राज्यों में रहते हुए व्यापारिक कार्यों का संचालन कर रहे थे, वे लोग अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए स्थानीय शासकों की सेना में सम्मिलित होकर राजस्व वसूली व मालगुजारी का कार्य करने लगे थे। इस दौरान कई लोगों ने स्वतंत्र राज्य भी स्थापित कर लिये थे। ऐसे ही लोगों में एक राजा थे पजवन देव जो पजोन जी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके बारे में विस्तृत जानकारी संलग्न लिंक पर देख सकते हैं।https://kaushikwarriors.blogspot.com/2021/03/blog-post.html
आप सोच रहे होंगे कि मैंने चर्चा शुरू किया था महर्षि भृगु और कौशिक विश्वामित्र भगवान के बारे में और चर्चा किसी और की करने लगा। लेकिन ऐसी बात नहीं है मैं आपको उसी विषय पर ले जा रहा हूँ जिसकी जानकारी के लिए आप इस ब्लॉग पर आये हैं। मद्र के पास स्थित सिहपूरा के निवासियों के द्वारा आबाद बड़गामा नामक एक प्राचीन गाँव के बारे में ऐसी मान्यता है कि वह गाँव ५००० वर्षों से भी अधिक पुराना है।
महर्षि भृगु का जन्म २.५ लाख ईसा पूर्व ब्रह्मलोक-सुषा नगर (सम्भवतः ओमान या वर्तमान ईरान) में हुआ था। ये आदि ब्रह्मा प्रचेता और मारिषा के पुत्र थे। ये अपने माता-पिता के सहोदर दो भाईयों में छोटे भाई थे। इनके बड़े भाई अंगिरा ऋषि थे। जिनके पुत्र बृहस्पति जी देवगणों के गुरु और कच के पिता थे। इन्होंने हिमालय के भृृगुप्रश्रवण नामक स्थान पर विश्व का पहला ज्योतिषिय ग्रन्थ "भृगु संहिता" की रचना किया थाा। कई जगहों पर भार्गव संहिता के नाम से भी विख्यात इस ग्रन्थ के लोकार्पण तथा गंगा और सरयू नदि के संगम के अवसर पर जीवनदायिनी गंगा नदी के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से महर्षि भृगु ऋषि ने अपने शिष्य दर्दर के सम्मान में ददरी मेला प्रारम्भ किया था।
दिव्या पौलोमी भार्गव मन्दिर |
महर्षि भृगु :
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महर्षि भृगु की दो पत्नियों का उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलता है। इनकी पहली पत्नी दैत्यों के अधिपति हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। जिनसे आपके दो पुत्रों क्रमशः काव्य-शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा का जन्म हुआ। सुषानगर (ब्रह्मलोक) में पैदा हुए महर्षि भृगु के दोनों पुत्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। बड़े पुत्र काव्य-शुक्र खगोल ज्योतिष, यज्ञ कर्मकाण्डों के निष्णात विद्वान हुए। मातृकुल में इन्हें आचार्य की उपाधि मिली। ये जगत में शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। दूसरे पुत्र त्वष्टा-विश्वकर्मा वास्तु के निपुण शिल्पकार हुए। मातृकुल दैत्यवंश में आपको ‘मय’ के नाम से जाना गया। अपनी परम्परागत शिल्प दक्षता से ये भी जगत में विख्यात हुए।
महर्षि भृगु की दूसरी पत्नी दानवों के अधिपति पुलोम ऋषि की पुत्री पौलमी थी। इनसे भी दो पुत्रों च्यवन और ऋचीक पैदा हुए। बड़े पुत्र च्यवन का विवाह मुनिवर ने खम्भात की खाड़ी में स्थित भड़ौंच (गुजरात) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया। राजा शर्याति को पुत्र नहीं था, इसके कारण भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिणी क्षेत्र में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा। आज भी भड़ौच में नर्मदा के तट पर प्राचीन भृगु मन्दिर बना हुआ है।
महर्षि भृगु ने अपने दूसरे पुत्र ऋचीक का विवाह मघवा और महेन्द्र के नाम से विख्यात कौशिक गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में देकर किया था। इससे भार्गव ऋचीक भी हिमालय के दक्षिण में स्थित राजा गाधि के ही राज्य में स्थित गाधिपुरी नामक क्षेत्र (उत्तर प्रदेश के वर्तमान बागी बलिया जिला) में आ गये थे।
महर्षि भृगु के इस विमुक्त क्षेत्र में आने के कई कथानक आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मा-प्रचेता पुत्र भृगु द्वारा हिमालय के दक्षिण दैत्य, दानव और मानव जातियों के राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मेलजोल बढ़ाने से हिमालय के उत्तर की देव, गन्धर्व, यक्ष जातियों के नृवंशों में आक्रोश पनप रहा था। जिससे सभी लोग देवों के संरक्षक ब्रह्माजी के सबसे छोटे भाई विष्णु को दोष दे रहे थे। दूसरे बारहों आदित्यों में भार्गवों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था। इसी बीच महर्षि भृगु के श्वसुर दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने हिमालय के उत्तर के राज्यों पर चढ़ाई कर दिया। जिससे महर्षि भृगु के परिवार में विवाद होने लगा। महर्षि भृगु यह कह कर कि राज्य सीमा का विस्तार करना राजा का धर्म है, अपने श्वसुर का पक्ष ले रहे थे। इस विवाद में विष्णु जी ने उनकी पहली पत्नी हिरण्यकशिपु नन्दिनी (पुत्री) देवी दिव्या को मार डाला। जिससे क्रोधित होकर महर्षि भृगु ने श्री विष्णु जी से सम्बन्ध खत्म कर लिये। भृगु ऋषि के द्वारा विष्णु को अपमानित कर के त्याग देने की घटना ही ग्रन्थों में भृगु ऋषि के द्वारा विष्णु को लात मारना कहलाता है।
इस विवाद का निपटारा महर्षि भृगु के छोटे भाई और विष्णु जी के दादा मरीचि मुनि ने इस निर्णय के साथ किया कि भृगु हिमालय के दक्षिणी भाग में जाकर रहें। उनके दिव्या देवी से उत्पन्न पुत्रों को सम्मान सहित पालन-पोषण की जिम्मेदारी देवगण उठायेंगे। परिवार की प्रतिष्ठा-मर्यादा की रक्षा के लिए भृगु जी को यह भी आदेश मिला कि वह श्री हरि विष्णु की आलोचना नहीं करेंगे। इस प्रकार महर्षि भृगु सुषानगर (पर्शिया, ईरान) से अपनी दूसरी पत्नी पौलोमी को साथ लेकर अपने छोटे पुत्र ऋचीक के पास गाधिपुरी (वर्तमान बलिया और गाजीपुर का इलाका) में आ गये।
महर्षि भृगु के इस क्षेत्र में आने का दूसरा आख्यान कुछ धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों में भी मिलता है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण और श्रीमद्भागवत के विभिन्न खण्डों में बिखरे वर्णनों के अनुसार महर्षि भृगु प्रचेता-ब्रह्मा के पुत्र हैं, इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री ख्याति से हुआ था। जिनसे इनके दो पुत्र काव्य-शुक्र और त्वष्टा तथा एक पुत्री ‘श्री’ लक्ष्मी का भी जन्म हुआ था। इनकी पुत्री ‘श्री’ का विवाह श्री हरि विष्णु से हुआ। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति जो योगशक्ति सम्पन्न तेजस्वी महिला थी। वह दैत्यों की सेना के मृत सैनिकों को अपने योगबल से जीवित कर देती थी। जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता, भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया था। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान ने विष्णु को शाप देते हुए कहा था कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर के सुमेरु (पर्वतराज हिमाचल) नन्दिनी गंगा के तट पर स्थित क्षेत्र में चले गए और वहीं पर तमसा देवी को जन्म दिये। अर्थात तमसा नदी की सृष्टि किये।
पद्म पुराण के उपसंहार खण्ड की कथा के अनुसार मन्दराचल पर्वत हो रहे यज्ञ में ऋषि-मुनियों में इस बात पर विवाद छिड़ गया कि त्रिदेवों (ब्रह्मा-विष्णु-शंकर) में श्रेष्ठ देव कौन है? देवों की परीक्षा के लिए ऋषि-मुनियों ने महर्षि भृगु को परीक्षक नियुक्त किया था।
त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान शंकर के कैलाश (हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला के पश्चिमी भाग में स्थित कोह सुलेमान जिसे अब ‘कुराकुरम’ कहते हैं) पहुंचे, उस समय भगवान शंकर अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। इनके द्वारा भगवान शंकर से मिलने की हठ करने पर रूद्रगणों ने महर्षि को अपमानित भी कर दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान शंकर को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग रूप में पूजित होने का शाप दिया।
यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक (सुषानगर, पर्शिया, ईरान) में ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहे। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य (जिसकी पूजा ही नहीं होगी) होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमान-तिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये।
भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीर सागर (श्रीनार फारस की खाड़ी के पास स्थित बन्दी-रमा नामक स्थान पर स्थित पहाड़ी (शेषनाग) पर अपनी पत्नी श्री लक्ष्मी देवी के साथ विहार कर रहे थे। उनसे मिलने की इच्छा जताने पर विष्णु के सेवकों ने बताया कि अभी वे सो रहे हैं। इस पर वे विष्णलि जी के जागने का इन्तजार करने लगे। लेकिन काफ़ी समय तक इन्तजार करने पर भी जब विष्णु जी ने उनकी ओर नहीं देखा तो महर्षि भृगुजी को लगा कि हमें आया हुआ देख कर ही विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। इस अपमान से उन्हें अपनी पहली पत्नी हैरण्य दिव्या देवी की विष्णु के द्वारा हत्या करने की घटना याद आ गई।
अपने दामाद के द्वारा किये जा रहे तिरस्कार से क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने अपने दाहिने पैर का आघात श्री विष्णु जी की छाती पर कर दिया। महर्षि के इस आचरण पर उनकी पुत्री लक्ष्मी जो श्रीहरि के चरण दबा रही थी कुपित हो उठी। कहते हैं कि इस घटना से क्षुब्ध हुए श्रीविष्णु जी ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और शापित होने के भय से अपनी भूल के लिए माफ़ी माँगते हुए कहा कि हे भगवन्! मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी। इससे सन्तहृदयी महर्षि भृगु अपने व्यवहार से लज्जित तो हुए ही उनका क्रोध भी शान्त हो गया। अपने दामाद में हुए इस हृदय परिवर्तन से प्रसन्न होकर उन्होंने श्रीहरि विष्णु को त्रिदेवों में श्रेष्ठ और सतोगुणी घोषित कर दिया।
ब्रह्मर्षि भृगु जी के द्वारा लिए गए त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी हुई है। वहीं वेदों को विभाजित कर के पुराणों की रचना करने वालों ने निर्दोष भृगु ऋषि की छवि को खराब करने के लिए जानबुझ कर कुछ ऐसे आख्यान गढ़ दिये जिससे भृगुवंशियों को नीचा दिखाया जा सके। इसमें लेखकों की बहुत बड़ी कूटनीति भी छिपी हुई थी। अपने उपेक्षा करने वाले को भी क्षमा कर देने वाले भृगु की छवि खराब करने के लिए इनकी लोकप्रियता से जलने वालों ने एक कहावत रच दी -
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का हरि को घट्यो गए, ज्यों भृगु मारि लात।।
इस घटना में कूटनीति यह थी कि हिमालय के उत्तर के नृवंशों का संगठन बनाकर रहने से श्री हरि विष्णु के नेतृत्व में सभी जातियां सभ्य, सुसंस्कृत बन उन्नति कर रही थी। वही हिमालय के दक्षिण का नृवंश समुदाय जिन्हें दैत्य-दानव, मरूत-रूद्र आदि नामों से जाना जाता था। परिश्रमी होने के बाद भी असंगठित, और असभ्य जीवन जी रही थी। ये जातियां रूद्रगणों और शंकर को ही अपना नायक-देवता मानती थी। उनकी ही पूजा करती थी। हिमालय के दक्षिण में आदित्यों के नायक श्रीविष्णु को प्रतिष्ठापित करने के लिए महर्षि भृगु ही सबसे उपयुक्त माध्यम थे। उनकी एक पत्नी दैत्यकुल से थी, तो दूसरी दानव कुल से थी और उनके पुत्रों शुक्राचार्य-अत्रि, त्वष्टा-मय-विश्वकर्मा तथा भृगुकच्छ में च्यवन तथा गाधिपुरी (भारत के उत्तर प्रदेश में स्थित गाजीपुर-बलिया का क्षेत्र) में ऋचीक का बहुत मान-सम्मान था। इस त्रिदेव परीक्षा से हिमालय के दक्षिणी भाग में रहने वाले भृगुवंशियों की सहायता से श्रीहरि विष्णु की प्रतिष्ठा स्थापित होने लगी। विशेष रूप से राजाओं के अभिषेक में श्री विष्णु का नाम लिया जाने लगा। भार्गवों की सहायता और आशिर्वाद से हिमालय पार के सूर्य, मङ्गल और शनि आदि देवों को प्रभुत्व और सम्मान (मान्यता) दिया जाने लगा।
पुराणों में वर्णित आख्यान के अनुसार त्रिदेवों की परीक्षा में विष्णु वक्ष पर पद प्रहार करने वाले महर्षि भृगु को दण्डाचार्य मरीचि ऋषि ने पश्चाताप करने के लिए अनवरत यात्रा (उदासीन यात्रा) करने की सजा सुनाते हुए बाँस की एक छड़ी देकर यह निर्देश दिया कि जिस धरा पर इस बाँस की छड़ी में कोंपले फूट पड़े और आपके कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर पड़े, उसी धरा को सबसे पवित्र मान कर प्रवास करेंगे और वहीं पर विष्णु सहस्त्रनाम का जप करेंगे तब ही आप अपने पूर्व पद पर पुनः आसीन होंगे और आपके इस पाप का मोचन होगा।
अपने धाम को त्याग कर अनिश्चित और अज्ञात धाम की तलाश में महर्षि भृगु भगवान के द्वारा आरम्भ की गयी यही यात्रा उदासीन यात्रा कहलाया। त्रेता युग में प्रभु श्री रामचन्द्र जी को भी उदासीन यात्रा के लिए जाना पड़ा था। वनवास के लिए अयोध्या को छोड़ते समय अनिश्चित गंतव्य की ओर प्रस्थान करने के समय की स्थिति का उल्लेख करते हुए संत तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है "तापस वेश सुवेश उदासी, चौदह वरष राम वनवासी।।" अर्थात् उदासी तपस्वी की तरह सुन्दर वेश धारण कर के प्रभु श्री रामचन्द्र जी को चौदह वर्षों तक वन में ही वास करना होगा। उदासी पन्थ के अनुयायी अपने घर, परिवार और समाज से कटे होने पर भी धर्म का त्याग नहीं करने वाले लोग होते हैं जो। भूमिहीन और बेघर होकर अपनी मूल भूमि से विस्थापित होकर भी धर्म का परित्याग नहीं करने वाले लोग होते हैं। अतः ऐसे लोग सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोगों के लिए पूजनीय होते हैं।
उदासीन होने के लिए मन्दराचल से चलते हुए जब महर्षि भृगु विमुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला उत्तर प्रदेश) के गंगा तट पर पहुँचते ही उनकी छड़ी में कोंपले फूट पड़ी। इससे वे समझ गए कि अब उनकी यात्रा रुकने वाली है। संयोगवश एक दिन गङ्गा नदी के किनारे स्थित वन में विचरण करने के दौरान उन्हें जोरों की प्यास लगी। नदी के जल से प्यास बुझा कर जैसे ही वहाँ से प्रस्थान करना चाहे कमर में बँधी हुई उनकी मृगछाला ढ़िली होकर भूमि पर गिर गई। इससे वे समझ गए कि इसी जगह पर हमें प्रवास करना है। फिर वे गङ्गा नदी के उस क्षेत्र को अविमुक्त क्षेत्र समझ कर प्रवास करने के लिए कुटिया बनायें और तपस्या में लीन हो गये। कालान्तर में यही क्षेत्र महर्षि भृगु के नाम से भृगुक्षेत्र कहलाया। वर्तमान में इसी भूमि पर स्थित बागी बलिया (उत्तर प्रदेश, भारत) नामक नगर बस गया, जो स्वतंत्रता संग्राम में प्रथम आजाद जिला के नाम से जाना जाता है।
महर्षि भृगु के जीवन से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक सभी पक्षों पर प्रकाश डालने के पीछे मेरा सीधा मन्तव्य है कि पाठक अधूरी और अपूर्ण जानकारी के कारण पाखण्डी और आडम्बरवादी न बनें, बल्कि सत्य को स्वीकार कर के उदासी धर्म के मार्ग पर चलते हुए स्वविवेक का प्रयोग कर सके। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में हमारे मनीषियों के वर्णन तो प्रचुर है, परन्तु उसी प्रचुरता से उसमें कल्पित घटनाओं को भी जोड़ा गया है। उनके जीवन को महिमामण्डित करने के लिए पौराणिक कथाओं के लेखकों ने उनकी ऐतिहासिकता से खिलवाड़ किया है, जिसके कारण भगवान भृगु जैसे लोगों के लिए भी शिव पुराण और हरिवंश पुराण में अपमान जनक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसके कारण भृगुवंशियों को भी कभी-कभी अपमानित होना पड़ जाता है। इसके कारण कभी-कभी तो ऐसी स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है जो संग्राम और महासंग्राम का भी कारण बन जाता है। वृत्रासुर के द्वारा कौशिकों के देश में आने वाले जल प्रवाह के मार्ग को अवरुद्ध करने के कारण जब उनके राज्य की नदियाँ सूखने लगी, पेड़-पौधे सूख गए, खेतीबाड़ी बन्द हो गई, उनके निवासी अपनी भूमि छोड़ कर अन्य देशों की ओर पलायन करने लगे तब यज्ञ के द्वारा वर्षा करवाने का निर्णय लेकर जब राजा विश्वामित्र भगवान तैयारियों में लग गए तब वृत्रासुर ने उनके द्वारा यज्ञ कार्य के लिए लाये हुए सभी गायों का हरण कर लिया था। इससे पञ्चगव्य आदि के अभाव में खण्डित हो रहे यज्ञ की सुरक्षा के लिए जब कौशिक विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ ऋषि से सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली कामधेनु गाय माँगने गये थे। लेकिन उनके पूर्वज़ भृगु के प्रति अपमान जनक बोल बोलते हुए किसी भी ब्राह्मण को उनके यज्ञ में सम्मिलित नहीं होने देने की धमकी देने से आक्रोशित होकर कौशिक विश्वामित्र भगवान ने वशिष्ठ ऋषि की गाय को जबरन ले जाने लगे थे। इसके कारण वशिष्ठ के सभी पुत्रों और शिष्यों ने अपने आश्रम में अतिथि के रूप में आये हुए भृगुवंशी राजा कौशिक विश्वामित्र भगवान पर आक्रमण करके दिया था। शिकार खेलने के दौरान अपने सैनिकों से भटक कर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में अतिथि के रूप में आये हुए राजा कौशिक विश्वामित्र भगवान के साथ किये गये दुर्व्यवहार के कारण हुए उस संघर्ष का दोषी वशिष्ठ थे, इसके बावजूद उनके शिष्यों ने कथा लिखते समय सारा दोषारोपण राजा विश्वामित्र जी पर थोप दिया था। सिर्फ़ इतना ही नहीं वशिष्ठ ने छल पूर्वक कौशिक विश्वामित्र भगवान के सौ पुत्रों की हत्या भी कर दी थी। जिसका बदला लेने के लिए राज-पाट त्याग कर वे तपस्वी बन गये थे। और तपोबल से प्राप्त दिव्य शक्तियों के आगे वशिष्ठ को झुकने के लिए विवश कर दिये थे।
महर्षि भृगु ने गङ्गा नदी के तट पर स्थित मुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला, उत्तर प्रदेश) में आने के बाद यहाँ के जंगलों को साफ कराया। यहाँ मात्र पशुओं के आखेट पर जीवन यापन कर रहे जनसामान्य को खेती करना सिखाया। यहाँ गुरूकुल की स्थापना करके लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाया। उस कालखण्ड में इस भू-भाग को नरभक्षी असुरों का निवास माना जाता था। उन्हें सभ्य और सुसंस्कृत बनानें का कार्य महर्षि भृगु और उनके बाद शुक्राचार्य जी के द्वारा किया गया था। कश्यप ऋषि की बड़ी पत्नी दिति देवी से जन्में दैत्यों, दनु देवी से जन्में दानवों, रक्षिका देवी से जन्में राक्षसों सहित अन्य असूरों के विकास के कार्य में मदद करने से नाराज़ कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति देवी के पुत्रों के द्वारा विरोध करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं था। लेकिन दक्षिणा लोभी वशिष्ठों ने सदैव भोग-विलास में लिप्त रहने वाले आदित्यों के अधर्म को वीरोचित कर्म कह कर खुल कर प्रशंसा किया तो सदैव धर्म रक्षार्थ दान, दया और तप में लीन रहने वाले असूरों के प्रति अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करते हुए दानवेन्द्र बलि जैसे धर्मात्मा को भी अधर्मी कह कर मान मर्दन का ही काम किया है। असूरों की बेटियों को बन्दी बना कर सदैव भोग-विलास में लिप्त रहने वाले इन्द्र, मित्र, वरुण और विष्णु की कथाओं से ही देवों का व्यक्तित्व पता चलता है। राक्षसेन्द्र रावण ने अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए भगवती सीता मइया का सिर्फ़ हरण किया था, लेकिन विष्णु ने तुलसी मइया के साथ जो किया था, क्या वह उचित? इन्द्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ जो किया था, क्या वह सही था? श्रीकृष्ण ने निर्दोष बाणासुर के सहस्त्र भाईयों का वध करके उनकी विधवा पत्नियों को द्वारका की नगर वधु बना कर क्या धर्म का काम किये थे?... बिल्कुल नहीं। इसके बावजूद उन अधर्मियों की सैकड़ों-हजारों वर्षों के बाद भी पूजा-पाठ और असली धर्माधिकारियों का विभिन्न पर्व-त्योहार के अवसर पर अपमान करने की प्रथा चला कर असुरों के वंशज़ों के हृदय पर कुठाराघात करना कैसे धर्म है? जिस तरह कश्यप भगवान की पत्नी अदिति देवी से जन्में आदित्य गण कच्छवाहा हैं, उसी तरह कश्यप ऋषि की ही अन्य पत्नियों से जन्में लोग भी कच्छवाहा ही हैं। लेकिन कच्छवाहा सम्मेलनों में सभी कच्छवाहों को आमंत्रित करने के बाद आदित्यों के वंशज़ों के द्वारा दिती और दनु आदि अन्य माताओं से जन्में कच्छवाहों के लिए बोले गये अपमान जनक शब्दों के कारण जब आज तक कच्छवाहा वंश के लोग ही एकजुट नहीं हो सके हैं तो अन्य लोगों के वंशज़ों को एकजुट करने की परिकल्पना कैसे साकार हो सकता है? विश्व बन्धुतव की विचारधारा पर चल कर ही इस स्वप्न को साकार किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए वशिष्ठ जैसे लोगों को सकारात्मक सोच को विकसित करने वाले साहित्य लिखने चाहिए। इतिहास लेखन का कार्य करने वाले लोगों को भी पक्षपात पूर्ण मनगढंत बातें लिखने के बजाए अच्छी हो या बूरी सभी पहलुओं पर विचार करते हुए सच्ची खबरें लिखनी चाहिए। ताकि भावी पीढ़ी के लोगों को ऐतिहासिक घटनाओं से प्रेरणा मिल सके।
भृगु संहिता
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महर्षि भृगु के परिवारिक जीवन से अपरिचित जन भी महर्षि द्वारा प्रणीत ज्योतिष-खगोल के महान ग्रंथ भृगु संहिता के बारे में जानते है। इस नाम से अनेक पुस्तके आज भी साहित्य विक्रेताओं के यहाॅ बिकती हुई दिखाई देती है।
महर्षि ने भृगु संहिता ग्रंथ की रचना अपनी दीर्घकालीन निवास की कर्म भूमि विमुक्त भूमि बलिया में ही किया था। इस सन्दर्भ दो बातें ध्यान देने की है। पहली बात यह है कि अपनी जन्मभूमि ब्रह्मलोक (सुषानगर) में निवास काल में उनका जीवन झंझावातों से भरा हुआ था। अपनी पत्नी दिव्या देवी की मृत्यु से व्यथित और त्रिदेवों की परीक्षा के उपरान्त जन्म भूमि से निष्कासित महर्षि को उसी समय शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर मिला जब वह विमुक्त भूमि में आये। भृगुकच्छ गुजरात में पहुॅचने के समय तक उनकी ख्याति चतुर्दिक फैल चुकी थी। क्योंकि उस समय तक उनके भृगु संहिता को भी प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनके शिष्य दर्दर द्वारा भृगुक्ष्ेत्र में गंगा-सरयू के संगम कराने की बात भी पूरा आर्यवर्त जान चुका था। आख्यानों के अनुसार खम्भात की खाड़ी में महर्षि के पहुॅचने पर उनका राजसी अभिनन्दन किया गया था, तथा वैदिक विद्वान ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करते हुए उन्हे आत्मज्ञानी ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित के रूप में उनकी अभ्यर्थना की थी। जिससे यह बात प्रमाणित होती है कि महर्षि द्वारा भृगु संहिता की रचना सुषानगर से निष्कासन के बाद और गुजरात के भृगुकच्छ जाने से र्पूर्व की गई थी।
महर्षि की इस संहिता द्वारा किसी भी जातक के तीन जन्मों का फल निकाला जा सकता है। इस ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति,शुक्र शनि आदि ग्रहों और नक्षत्रों पर आधारित वैदिक गणित के इस वैज्ञानिक ग्रंथ के माध्यम से जीवन और कृषि के लिए वर्षा आदि की भी भविष्यवाणियां की जाती थी।
महर्षि के कालखण्ड में कागज और छपाई की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। ऋचाओं को कंठस्थ कराया जाता था और इसकी व्यवहारिक जानकारी शलाकाओं के माध्यम से शिष्यों को दी जाती थी। कालान्तर में जब लिखने की विधा विकसित हुई और उसके संसाधन मसि भोजपत्र ताड़पत्र आदि का विकास हुआ, तब कुछ विद्वानों ने इन ऋचाओं को लिपिबद्ध करने का काम किया।
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