गोत्र, प्रवर और जाति का अर्थ
गोत्र, प्रवर और जाति का अर्थ :
आदि गोत्रों के नाम -
"जमदग्निर्भरद्वाजो विश्वामित्रोऽत्रिगौतमो।
वसिष्ठः काश्यपागस्त्यौ मुनयो गोत्रकारिणः।।"
अर्थात् जमदग्नि, भारद्वाज, विश्वामित्र, अत्रि, गौतम, वशिष्ठ, कश्यप व अगस्त्य आदि सभी आठों ऋषि हमारे आदि गोत्र हैं।
किन्तु गोत्र के अर्थ बताते हुए शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख किया गया है - "वंश परम्परा प्रसिद्ध पुरुष ब्राह्मणरूपमं गोत्रम।" अर्थात् वंश परम्परा में जो ब्राह्मण रूपी प्रसिद्ध पुरुष हुए हैं वही गोत्र हैं।
गोत्र लोगों को उनके वंश और कुल की पहचान कराते हुए उनके इतिहास और कर्तव्यों का स्मरण कराने वाला सबसे विश्वसनीय माध्यम है।
वाकई में गोत्र! लोगों को उनके वंश और कुल की पहचान कराते हुए उनके इतिहास और कर्तव्य का स्मरण कराने वाला सबसे विश्वसनीय माध्यम है। इसका इस्तेमाल अपने वंश और कुल के कबिलों में अन्य वंश और कुल के लोगों के प्रवेश को रोक कर अपने वंश की सुरक्षा के साथ अपने वंश की शुद्धता को बनाये रखने के लिए भी किया जाता है। सिर्फ़ इतना ही नहीं बल्कि "गो" और "त्र" के योग से बने शब्द "गोत्र" के शाब्दिक अर्थ पर भी विचार करने पर गोत्र का अर्थ इन्द्रिय विग्रह होता है। क्योंकि "गो" का शाब्दिक अर्थ है इन्द्रीय और "त्र" का अर्थ है मुक्त। अर्थात् अपने कुल और वंश के वे परम पुरुष जो इन्द्रीय मुक्त होकर न केवल ब्राह्मण के रूप में स्थापित हुए बल्कि अपने समय में अपने कर्मों के द्वारा अपनी जाति में एक आदर्श पुरुष के रूप में सबसे ज्यादा विख्यात भी हुए वही हमारे गोत्र हैं।
गोत्र से सम्बन्धित उपरोक्त श्लोक में वर्णित आठों ऋषियों में से कश्यप ऋषि! ब्रह्मदेव प्रचेता और मारिषा के पाँचवें औरस पुत्र मरीची ऋषि के द्वारा योग बल से उत्पन्न मानस पुत्र थे, जबकि शेष सभी सातों ऋषियों में से अत्रि ऋषि और विश्वामित्र ऋषि ब्रह्मदेव प्रचेता और मारिषा के ज्येष्ठ पुत्र भृगु और हिरण्यकशिपु की बेटी दिव्या के गर्भ से उत्पन्न औरस पुत्र शुक्राचार्य के वंशज़ थे। जमदग्नि ऋषि ब्रह्मदेव प्रचेता और मारिषा के ज्येष्ठ पुत्र भृगु और पुलोम दानव की बेटी पौलोमी के गर्भ से उत्पन्न औरस पुत्र च्यवन ऋषि के वंशज़ थे। जबकि भारद्वाज! जो ब्रह्मदेव प्रचेता और मारिषा के द्वितीय औरस पुत्र अंगिरा नन्दन बृहस्पति और हिरण्यकशिपु की बहन तारा के औरस पुत्र मगर भृगु के वंश में उत्पन्न चन्द्रवंशी राजा भरत के दत्तक पुत्र थे। सप्तर्षियों में सम्मिलित गौतम ऋषि! ब्रह्मदेव प्रचेता और मारिषा के द्वितीय औरस पुत्र अंगिरा ऋषि के उतथ्य नामक दूसरे पुत्र के पौत्र तथा दीर्घतमस के पुत्र थे। इनकी माता का नाम प्रद्वेषी और पत्नी का नाम अहिल्या था। इसी तरह ब्रह्मदेव प्रचेता और मारिषा के ही मरीचि नामक पुत्र के योग बल से उत्पन्न कश्यप नामक पुत्र की अदिति नामक पत्नी जो कुम्भ में रहने वाले बुध भगवान के आशिर्वाद से बारह आदित्यों को उत्पन्न किया था, उनमें से मित्र और वरूण नामक पुत्रों ने रम्भा नामक अप्सरा से सहवास किया था। जिसके कारण उत्पन्न पुत्र मित्र और वरुण में से किसके थे, इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं होने के कारण कुम्भ में जन्मी रम्भा के पुत्र मित्रावरूण अगस्त्य के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। इसी तरह मरीचि नन्दन कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति के सबसे छोटे बेटे विष्णु ने भी उर्वशी नामक अप्सरा के गर्भ से वशिष्ठ को जन्म दिये थे। जो बाद में मित्रावरुण अगस्त्य ऋषि के शरण में रहने के कारण अगस्त्य नन्दन भी कहलाये।
इस तरह पूर्वोक्त श्लोक में वर्णित आठ ऋषियों में से कश्यप ऋषि को छोड़कर सभी योनिज़ ऋषियों को ही सप्तर्षि में शामिल किया गया था। ऐसी मान्यता है कि मूलतः इन्हीं आठों ऋषियों के कारण सभी चौरासी लाख योनियों के जीवों का विकास हुआ है। जिसके कारण ये सातों ऋषि तीनों भुवनों और सातों लोकों में सप्तर्षि के नाम से पुजनीय बनें। जबकि सप्तर्षियों के समान ही योग्य होने के बावजूद कश्यप ऋषि को सप्तर्षियों में स्थान नहीं मिला। इसका चाहे जो भी कारण हो फिलहाल यही प्रतीत होता है कि ऋष्यर्चन के कार्य अर्थात् अनुसन्धान आदि वैज्ञानिक कार्यों को सम्पादित करने वाले ही ऋषि कहलाते थे और सिर्फ़ इन्हीं गुणों से सम्पन्न लोगों को ही सप्तर्षि मण्डल में स्थान दिया जाता था। आगे चलकर जैसे-जैसे इन सप्तर्षियों के वंश में उत्पन्न विभिन्न जातियों की आबादी बढती हुई सातों लोकों में फैलती गयी वैसे-वैसे उन जातियों का ब्राह्मण रूपी प्रधान पुरुष भी उनका गोत्र बनता गया। जिन्हें उपगोत्र कहना ज्यादा उपयुक्त होगा।
हालांकि उपरोक्त सप्तर्षियों के अलावा पुलस्त्य, पुलह और क्रतु आदि पितरों के वंश में उत्पन्न प्रमुख ब्राह्मण पुरुषों के नाम पर भी कई गोत्र चले हैं। जिसके कारण अलग-अलग शास्त्रों में गोत्रों की अलग-अलग संख्या बतायी गयी है। जो एक सौ चौबिस के लगभग है। भृगु कुल में उत्पन्न अत्रि नन्दन चन्द्रदेव और अंगिरा नन्दन बृहस्पति की पत्नी तारा ने गन्धर्व विवाह के द्वारा बुध नामक जिस पुत्र को जन्म दिये थे उनका विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला के साथ हुआ था। जब बुध और इला से उत्पन्न पुरुरवा का विवाह विष्णु जी ने पाताल लोक वासी दैत्य कन्याओं के साथ भोग करने से उत्पन्न उर्वशी नामक अपनी पुत्री के साथ कर दिया, तब पुरुरवा के छह पुत्रों आयु, वनायु, शतायु, दृढ़ायु अमावसु और _ _ _ में से अमावसु के वंश में उत्पन्न कौशिक गाधी के पुत्र कौशिक विश्वामित्र ऋषि अपने तपोबल से ब्रह्मर्षि बनने के बाद अपने सैकड़ों पुत्रों में से जीवित बचे सत्ताइस पुत्रों के गोत्र कहलाये। इला के गर्भ से उत्पन्न भृगु वंशी पुरूरवा के सभी पुत्र इल्भार्गव कहलाये। इन्हीं लोगों के वंशज़ कहीं पर इलबारी तो कहीं पर इलबर्ग कहलाये। कौशिक गोत्रीय लोगों को ही देखें तो इस गोत्र में जन्म लेने वाले वंशज़ों से आबाद इल्बर्ग परिवार (इला और भृगुवंशी बुध के परिवार) जो कहीं कम्मा वारी तो कहीं कुम्भी बारी, कहीं बड़गायां आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है, वह सत्ताइस गोत्रों में बँट गया है।
वैदिक ग्रन्थों में मघवा और महेन्द्र कहे गये कौशिक गाधी के पुत्र कौशिक विश्वामित्र भगवान के पुत्रों-पौत्रों में से ब्राह्मण के रूप में प्रसिद्ध हुए जो लोग अपने वंश को प्रसिद्धि दिलाये वे भी अपने वंशज़ों के गोत्र कहलाये। इलबारी कहलाने वाले कौशिक गोत्रीय वंश में ही उत्पन्न प्रसिद्ध ब्राह्मणों के नाम से विख्यात उपगोत्रों के नाम सहित कुुुल सत्ताइस गोत्र जो सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हैं। इनके नाम निम्नलिखित हैं -
कौशिक,
पाणिन,
बभ्रु,
ध्यानजप्य,
पार्थिव,
देवरात,
शालङ्कायन,
बाष्कल,
लोहित,
यामदूत,
कारीषु,
सौश्रुत,
सैन्धवायन,
देवल,
रेणु,
याज्ञवल्क्य,
अघमर्षण,
औदुम्बर,
अभिष्णात,
तारकायन,
कात्यायन,
चुञ्चुल,
शालावत्य,
हिरण्याक्ष,
सांकृत्य,
गालव्य
बादरायणी
कौशिक गोत्र की ही इन शाखाओं (उपगोत्रों) सहित महर्षि वशिष्ठ के साथ हुए युद्ध के दौरान कौशिक विश्वामित्र भगवान के मारेे गये पुत्रों में से बचे हुए जिन सात पुत्रों में अपना राज्य बांट कर कौशिक विश्वामित्र बाबा तपस्वी बन गये थे, उन पुत्रों के बारे में भी विस्तृत चर्चा बाद में करेंगे।
फिलहाल इस जगह पर गोत्रों, उपगोत्रों और प्रवर के बारे में विस्तृत चर्चा करने से पहले जाति के बारे में जानने की कोशिश करें। लेकिन सवाल यह है कि यह जाति है क्या? वैय्याकरण शास्त्र ..... में जाति की परिभाषा देते हुए कहा गया है -
"आकृति गृहणाजातिर्लिङ्गानाञ्च न सर्वभाक्।
सकृदाख्यातनिग्रार्ह्या गोत्रञ्च चरणैःसह।।"
अर्थात् जिस खास गुण, अवगुण, रंग और आकृति के द्वारा विभिन्न तरह के लोगों में से भी एक जैसे दिखने वाले कई लोगों को पहचाना जाए, उसे जाति कहते हैं। विभिन्न तरह के लिङ्गों में से प्रत्येक खास लिङ्ग के द्वारा उसके जैसे ही रूप, रंग, गुण और आकृति आदि विशेषताओं को धारण करने वाले सामुहिक पहचान चिन्ह को जाति कहते हैं। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझने की कोशिश करते हैं। मनुष्य के हाथ-पैर, मुँह-नाक आदि भिन्न-भिन्न आकृति के होते तब उसे मनुष्य जाति के नाम से जानने के बजाए भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता। लेकिन इस जाति के मुँह-नाक, हाथ-पैर आदि विभिन्न अंगों की एक विशेष प्रकार की आकृति होने के कारण ही हम देखते ही पहचान जाते हैं कि यह भी हम मनुष्यों की ही जाति है। इसी तरह भिन्न-भिन्न आकृतियों के आधार पर ही भिन्न-भिन्न जातियों का बोध होता है। यह जाति लिंग गत् है।
जो जीव जिस रूप, रङ्ग, गुण और आकृति वाले लिङ्ग से उत्पन्न होता है उसी रूप, रङ्ग, गुण और आकृति को पाता है और मृत्यु के बाद ही उस लिङ्ग के स्वरूप वाले देह से दूसरे स्वरूप वाले देह में प्रवेश कर पाता है। अर्थात् जीवन पर्यन्त अपने ही जैसे मनुष्य जाति में उत्पन्न जीव! बन्दर जाति, बकरी जाति, कुत्ता जाति, कौआ जाति, मछली जाति या मोर जाति में नहीं जा सकता है। वरन् इसके लिए अपनी काया (शरीर) त्याग कर पुनर्जन्म लेना होगा। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी जाति अपना शरीर त्याग कर दूसरी जाति का स्वरूप पा सकता है। वरन् इसके लिए सभी जीव-जगत! परमेश्वर के द्वारा बनाये गये प्राकृतिक नियमों से बँधे हुए हैं। इसका संचालन सृष्टि का निर्माण करने के दौरान परमेश्वर के द्वारा निज स्वरूप से उत्पन्न कृतिकाओं की सहायता से प्रथम निर्मित प्रकृति ही करती है। उसके अलावे किसी अन्य की मर्जी नहीं चलती है।
महाभाष्य में जाति का लक्षण बताते हुए कहा गया है -
"प्रादुर्भावविनाशाभ्यां सत्वस्यं युगपद्गुणः।
असर्वलिङ्गा बह्वर्था तां जातिं कवयो विदुः।।"
अर्थात् प्रादुर्भाव से लेकर विनाश पर्यन्त चैतन्य तत्व प्राण को एक ही समय में दिया जाने वाला वह गुण जो सभी लिङ्गों को नहीं प्राप्त होता है, वही कवियों व विद्वानों के अनुसार जाति है। वही गुण जो चैतन्य तत्व को प्रत्येक युग में उसके कर्मफल के अनुसार योग्यता को देखते हुए श्रष्टा के द्वारा प्रदान किया जाता है तथा विभिन्न आकार-प्रकार के प्राणियों में भी जिस गुण के कारण एक खास वर्ग के रूप में पहचाना जाता है वही जाति है। अर्थात् जाति ही वह माध्यम है जिसके द्वारा ८४ लाख योनियों में भी हम आसानी से भेद कर लेते हैं।
यह जाति न तो जन्मगत् है और न ही कर्मगत् वरन् योनिगत् है। जिस योनि से किसी प्राण का प्रादुर्भाव होता है, वही योनि प्राणस्थ शरीर की जाति होती है। इससे यह पता चलता है कि जाति शरीर का होता है प्राण का नहीं। क्योंकि प्राण शास्वत है और जाति नश्वर। गुणों का नाश होता है और जिससे प्रकृति की श्रृष्टि हुई है, उसी में गुणों का लोप हो जाता है।
जिस जातिय भेद को लेकर मानव जाति के लोग ऊँच-नीच के नाम पर आपस में झगड़ते रहते हैं, उस जाति शब्द की व्युत्पत्ति जन धातु से हुई है। इसका अर्थ है जन्म और गोत्र। जबकि वैय्याकरण के मत से किसी शब्द के प्रतिपाद्य अर्थ को जाति कहते हैं। अर्थात् किसी प्राणी, वस्तु या स्थान की पहचान के लिए प्रयुक्त सर्वमान्य ध्वन्यात्मक शब्द ही जाति है। इसी मान्यता के आधार पर हिन्दी वैय्याकरण में वर्णित जाति वाचक संज्ञा जङ्गल, पहाड़, नदी, सरोवर, फल, फूल, गाय, घोड़ा, मेज़, पुस्तक, लड़का, लड़की, स्त्री, पुरुष, हवा, पानी आदि सजीव प्राणियों तथा निर्जीव वस्तुओं और तत्वों को भी विशेष जाति के रूप में स्वीकार करती है। जाति के सम्बन्ध में वस्तुतः यही सत्य है। लेकिन बहुत दुःख की बात है कि सैकड़ों वर्षों तक गुलामी करने के कारण अपने पौराणिक ज्ञान धरोहर को भुला कर एक ही वंश में उत्पन्न सभी मानव जाति ऊँच-नीच को लेकर आपस में झगड़ रहे और व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए मानवता को तिलाञ्जली देकर पशुता से भी हीन आचरण कर रहे हैं।
मानव जाति में जन्म लेकर भी जो हिंसक पशुओं जैसा आचरण कर रहे हैं वैसे लोगों को निश्चित रूप से अगले जन्म में मानव जाति के सर्वोच्च योनि के पद से गिरा कर पशु योनि से भी निम्न योनि में भेजने का कार्य करेंगे।
हमें अपने कर्म और व्यवहार से ऐसा प्रयास करना चाहिए ताकि बारम्बार ८४ लाख योनियों में जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति हेतु सर्वोच्च योनि में प्रवेश मिल सके। इसके लिए हमें धर्मानुकुल कार्य करना होगा और अपने गोत्रों-पितरों के द्वारा बताए गए सद्मार्ग का अनुकरण करना होगा। लेकिन यह तभी होगा जब हमें अपने गोत्रों और पितरों के बारे में जानकारी होगी। जिन्हें अपने गोत्र की जानकारी नहीं है उन्हें अपना गोत्र ब्रह्मदेव को मानना चाहिए। क्योंकि उनके द्वारा उत्पन्न सातों ऋषि या सप्तर्षि ही सभी जातियों के आदि गोत्र हैं। कई ग्रन्थों में अपने गोत्र का नाम भूल चुके लोगों को अपना गोत्र मरीचि नन्दन कश्यप को मानने की सलाह दिए जाने के कारण जो लोग कश्यप गोत्रीय नहीं हैं वे लोग भी अपना गोत्र कश्यप को मान कर काश्यपों के रीति-रिवाजों का अन्धानुकरण करने लगते हैं। इसके कारण अपने गोत्रों-पितरों के आशीर्वाद से तो वञ्चित रहते ही हैं, भूलवश या अनजाने में अपने वास्तविक पितरों यथा कुल देव व कुल देवियों की उपेक्षा करने के कारण उनके रोष का भी शिकार हो जाते हैं। अतः ऐसे में अपने गोत्रों और पितरों के नाम भूल चुके लोगों को अपना गोत्र, पितर और कुल देव आदि ब्रह्मा को ही मान कर ब्रह्मा जी की उपासना करनी चाहिए। क्योंकि यही देव, दानव, यक्ष, किन्नर, पेड़, पौधे, पशु, पक्षी आदि सभी जीवों के आदि पिता अर्थात् परमपिता परमेश्वर हैं। इन्हीं के वंशज़ों से तीनों भुवन और सातों लोक आबाद हुआ है। वैदिक ग्रन्थ हो या बाइबिल या कुरआन विश्व के लगभग सभी धर्म ग्रन्थों में उत्पत्ति के बारे में लगभग एक ही कथा घुमा-फिरा कर लिखा हुआ है।
.... क्रमशः
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