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राजा मान सिंह और वृन्दावन

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राजा मान सिंह ने  गोविन्द देव मन्दिर बनाते समय बसाया था वृन्दावन ✍️ प्रसेनजित सिंह, पटना राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली और पटना से प्रकाशित पुस्तक "अकबर और तत्कालीन भारत" जिसके संपादक इरफ़ान हबीब हैं, इसके "पुस्तक-समीक्षा" नामक अध्याय के पृष्ठ संख्या ३२३-३२५ में वृन्दावन के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है। इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली से १९९६ में प्रकाशित तथा  मार्गरेट एच केस द्वारा सम्पादित पुस्तक "गोविन्ददेव : ए डायलॉग इन स्टोन" के पेज नंबर ३०५ और १९१० ईस्वी में कराची से प्रकाशित पुस्तक रियाजुलं-इस्लाम के पेज नंबर १३-१४  में इस पुस्तक के सम्पादक निकासी-असरार ने भी इसका उल्लेख किया है कि यमुना नदी के किनारे स्थित गोविन्ददेव मन्दिर का निर्माण अम्बेर के राजा मान सिंह ने किया है। जिस जगह पर उन्होंने गोविन्ददेव मन्दिर का निर्माण किया था उस जगह पर वृन्दावन नामक नई बस्ती बसा कर एक धार्मिक बस्ती के रूप में उन्होंने ही वृन्दावन को प्रसिद्धि दिलवाया था।  १९८० ईस्वी में पाकिस्तान के कराची से प्रकाशित पुस्तक रियाजुलं-इस्लाम के सम्पादक बहरुल

कौन हैं कुम्भी बैस

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सभी देवी-देवताओं से पहले क्यों होती है कुम्भ और अग्नि की पूजा कुम्भ और अग्नि हिंदू धर्म में ऐसे बहुत से देवी-देवता हैं जिनकी लोग पूजा-अर्चना करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव को त्रिदेवों के रूप में जाना जाता है। ब्रह्मा जी को संसार का रचियता माना गया है, तो भगवान विष्णु को पालनहार और पशुपतिनाथ शिव जी को संहारक। इस पृथ्वी पर भगवान विष्णु और शिव के हजारों मन्दिर और मन्दिरों के अवशेष देखने को मिलते हैं, लेकिन ब्रह्मा जी के मन्दिर पूरे संसार में केवल ३ ही हैं। उनमें से भी दक्षिणी भारत और थाईलैण्ड में स्थित ब्रह्मा के मन्दिर आदि ब्रह्मा का मन्दिर नहीं है बल्कि ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ किये गये प्रह्लाद नन्दन कुम्भ के मन्दिर हैं। विदित हो कि हिरण्यकशिपु नन्दन प्रह्लाद के तीन पुत्रों वीरोचन, कुम्भ और निकुम्भ में से दैत्य राज प्रह्लाद के उत्तराधिकारी वीरोचन को दैत्यों का अधिपति बनाया गया था, जबकि उनके छोटे भाई कुम्भ को महामंत्री और निकुम्भ को सेनापति का पद दिया गया था। दिति नन्दन वज्राङ्ग जब तप कर के वापस लौटे तब उनकी पत्नी वाराङ्गी ने इन्द्र के द्वारा के द्वारा प्रताड़ित क

गोत्र, प्रवर और जाति का अर्थ

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गोत्र, प्रवर और जाति का अर्थ : वर्तमान समय में असांस्कृतिक शिक्षा पद्धति के कारण लोग अपने गोत्र और प्रवर के ज्ञान से भी अनभिज्ञ हैं। गोत्र क्या है? लोग इसे भी नहीं जानते। इसके कारण सगोत्रीय विवाह करने से उत्पन्न अनुवांशिक विभेद वैवाहिक जीवन को दुष्कर और दुखदायी बनाता जा रहा है। इस दुःखमय वैवाहिक जीवन से हमारी रक्षा पुरुषों को उपेक्षित कर महिला आयोग या महिला आरक्षण जैसे कानून और पाश्चात्य सभ्यता का नकल करने से नहीं बल्कि अपने मूल वैदिक संस्कृति का अनुपालन करने से ही होगा। लेकिन इसके लिए मूल सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा अनिवार्य है। इसके लिए प्रस्तुत है सर्वप्रथम गोत्र और प्रवर का संक्षिप्त परिचय। आदि गोत्रों के नाम  - "जमदग्निर्भरद्वाजो विश्वामित्रोऽत्रिगौतमो।  वसिष्ठः काश्यपागस्त्यौ मुनयो गोत्रकारिणः।।" अर्थात् जमदग्नि, भारद्वाज, विश्वामित्र, अत्रि, गौतम, वशिष्ठ, कश्यप व अगस्त्य आदि सभी आठों ऋषि हमारे आदि गोत्र हैं।  किन्तु गोत्र के अर्थ बताते हुए शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख किया गया है -  "वंश परम्परा प्रसिद्ध पुरुष ब्राह्मणरूपमं गोत्रम।" अर्थात् वंश परम्परा

ब्रह्मर्षि भृगु और कौशिक के वंशज़

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कौन हैं कुम्भी बारी, कम्मा बारी और बड़गायां परिवार के नाम से प्रसिद्ध कौशिक गोत्रीय समाज बारी, बड़गायां, बड़गामा, बर्लिन, बर-एइली (बरैली), ब्राज़ील और बर्जिनिया जैसे नाम आपने भी सुना होगा। ये नाम विभिन्न देशों, राज्यों और नगरों के नाम भले ही हैं, लेकिन ये अपनी बहादुरी और सम्पन्नता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध कौशिक और कुम्भी (Cossacks and Comers) बैस कहलाने वाले सबसे प्राचीन राजवंश के वंशज़ों की जाति- "बारी जाति" के सूचक हैं। इसके कारण कौशिक गोत्रीय लोगों की एक जाति दक्षिणी भारत में कम्मा वारु  के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। यही जाति इण्डोनेशिया के बली और जावा नामक द्वीपों सहित उत्तर भारतीय राज्योंं में कुम्भी कहलाती है। इसी इण्डोनेशियाई द्वीप के पश्चिमी तट पर रहने वाले चार कौशिक गोत्रीय ब्राह्मणों को बुलाकर सह्याद्रि के तटवर्ती क्षेत्रों में बसाया गया था। जिन्हें पड़ोसी राज्यों के द्वारा जब परेेशान किया जाने लगा तब चारों ब्राह्मणों ने यह निर्णय लिया कि उनके वंश में इसके बाद उत्पन अगला  सन्तान पुत्र हो या पुत्री वह क्षत्रिय होगा। उसमें ब्राह्मणोचित संस्कारों के साथ क्षत्रिय स

कौशिक वारियर पजवन देव

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कौशिक गोत्रीय ददवाल राजपूत पृथ्वी राज चौहान की सुरक्षा के लिए महाराजा जयचंद का रास्ता रोकते हुए राजा पजवन देव कहते हैं कि दसवीं-दसवीं शताब्दी के राजा यशपाल (जसपाल) के दूसरे बेटे ने सतलुज नदी के किनारे शिमला में भज्जी और कोटी नामक दो रियासतों को स्थापित किया था। इनमें से कोटी रियासत के वंशज कुटलैहड़िया कहलाते हैं। कुटलैहड़िया समाज के लोगों ने बाद में होशियारपुर की तलहटी में स्थित मनखण्डी और नादौन के इलाके को भी जीत कर कुटलैहड़िया रियासत में मिला लिया था। इस रियासत के मुख्य किला का नाम कोट वल्लभ था। इस रियासत के लोग मूल ब्राह्मण परिवार के थे, लेकिन रियासत के राजा होने के कारण इनकी पहचान राजपूतों के रूप में होने लगी। जबकि इस वंश के लोग मूल कुम्भी बैस वंशीय बड़गाओं (भार्गव) परिवार के ब्रह्मक्षत्रिय कहलाने वाली एक प्राचीनतम जनजाति के हैं, जिन्हें तरणकीशाही ब्राह्मण और बारी ब्राह्मण ने कहा जाता है। इनका गोत्र कौशिक है। विदित हो कि कौशिक विश्वामित्र भगवान का जन्म एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था, लेकिन अपने तपोबल के कारण ब्रह्मर्षि की उपाधि पाने के बाद उन्होंने ब्राह्मण के रूप में प्रवेश किया था